खुद नहीं ,खुद्दारी मर गयी हैं इनकी ,
ये बस्तियां अब श्मशान सी लगती हैं .
ये नहीं इनकी ज़मीर बेगैरत हैं ,
इन्सानियत अब अफवाह सी लगती हैं .
जिन्दगी नहीं मैं मौत से वाकिफ़ हूँ ,
जिन्दगी तो अब मेहमान सी लगती हैं .
सच नहीं संस्कार मर गए हैं इनके  ,
ईमानदारी अब तो बीमार सी लगती हैं .
शब्द नहीं दिमाग आपाहिज हैं इनके ,
संसद अब दुकान सी लगती हैं .
खिलौने छीन गए बच्चो के हाथो से ,
घर भी अब बाज़ार सी लगती हैं .

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