पहाड़ को पिघलाउंगा मैं
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ये पहाड़ जो खड़ा है गुनाहों का हैं ,
ये झाड़ उनके सिपलहारो का हैं ,
मोमबती जो जनता का हैं ,
अब इसे जलाऊंगा मैं ,
और पहाड़ को पिघलाउंगा मैं .
ये समुन्द्र जो शांत हैं सब्र का हैं ,
ये नदी जो इसमें मिलती है कष्ट का हैं ,
ये हिम जो जनता का हैं ,
अब इसे गरमाउंगा मैं,
और समुन्द्र में भूचाल लाऊंगा मैं .
Copyright@Ranjan Mishra

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