औरत की आत्मकथा -१

मैं औरत हूँ ,
मैं सृजन करती हूँ ,
मैं पालन करती हूँ ,
देती हूँ पहली शिक्षा ,
उँगली पकड़ चलना सिखलाती हूँ ,
देव हो या दानव ,
उसको मैं संस्कार देती हूँ,
एक माँ बन कर .
सबसे पहले परिचय कराती हूँ ,
भावना से ,प्यार से ,
सह-अस्तित्य समझाती हूँ ,
रोज़-रोज़ लड़ के सुबह-शाम ,
रोज़ साथ-साथ बड़ते हुए,
एक लड़की से परिचय कराती हूँ ,
तुम बलवान हो ,तुम रक्षक हो ,
यह मांग लेती हूँ रक्षाबंधन में ,
एक बहन बन कर .
तुम्हारे कोमल ह्रदय पर राज़ करती हूँ ,
चाँद ,फूल ,नदी ,सावन ,
इन सबका तुम्हे अर्थ समझाती हूँ ,
भावुकता ,चाहत और मोह ,
मन की चंचलता की शास्त्र पढाती हूँ ,
घुटने पर खड़ा कर के प्रेमालाप कराती हूँ ,
एक प्रिय प्रेमिका बन कर ,
स्त्री की हास्य कला बताती हूँ ,
हंसी और ठिठोली करती हूँ ,
वो समस्या सुलझाती हूँ ,
जो तुम माँ से नहीं कह सकते ,
वो शास्त्र पढाती हूँ ,
जिसकी एक किशोर को जरूरत रहती हैं ,
एक भाभी बन कर .
काम ,मोह ,जीवन ,
परिवार ,बच्चे ,जिम्मेदारी ,
क्रोध ,निराशा और उदासी .
पुरुष की कमजोरी मैं भांप लेती हूँ ,
जलते रहो वासना में रात-भर ,
मैं वो देह-आग लगाती हूँ ,
दुनिया के सबसे बड़े रहस्य से,
मैं पर्दा उठाती हूँ ,
लगा कर अपने वक्ष से ,
तुम्हे मैं साहस देती हूँ ,
और भर कर कोख अपनी ,
दो जिस्म एक जान करती हूँ ,
मांग लेती हूँ मौत तुमसे पहले ,
एक पत्नी बन कर .
जब मेरा जन्म होता हैं ,
साक्षात् लक्ष्मी छोड़ने आती हैं ,
सेवा मेरा धर्म हैं ,
परिवार की मंगल कामना मेरा कर्म ,
पराये घर जाने को आती हूँ ,
पर रूला जाती हूँ विदाई के दिन ,
एक बेटी बन कर .
मैं परियो की कहानी सुनाती हूँ ,
सम्पूर्ण जीवन की अनुभव बतलाती हूँ ,
उच्च-नीच ,सही-गलत ,
अचार के स्वाद से लेकर,
बच्चे पालन के गूर सिखलाती हूँ ,
पालती हूँ बच्चो को ,
और संस्कार भरती हूँ ,
बैठ के परिवार के ऊपर ,
सबको एक अनुशासन में रखती हूँ ,
एक दादी बन कर

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