एक कसक -सी उठती हैं ,
कुलबुलाते बुलबुले की तरह ,
वाष्प बनकर उड़ जाती हैं ,
जैसे आई थी उसी तरह .
मैं रोकना चाहता हूँ ,
लेकिन वो रूकती कहाँ हैं ,
ये तितली इतनी सुंदर हैं ,
लेकिन फूलों पर झुकती कहाँ हैं ?
सूर्य में इतनी तेज़ रोशनी हैं ,
लेकिन आँखें सामने टिकती कहाँ हैं ?
मैं तो उसके कानों में कहना चाहता हूँ ,
लेकिन ये हिरणी सुनती कहाँ हैं ?
एक चोट ,एक भय हैं ,
जो पकते रहता हैं धीरे -धीरे ,
अंदर इतना ताप छुपा हैं ,
लेकिन ज्वाला उठती कहाँ हैं ?
Copyright@Sankalp Mishra
कुलबुलाते बुलबुले की तरह ,
वाष्प बनकर उड़ जाती हैं ,
जैसे आई थी उसी तरह .
मैं रोकना चाहता हूँ ,
लेकिन वो रूकती कहाँ हैं ,
ये तितली इतनी सुंदर हैं ,
लेकिन फूलों पर झुकती कहाँ हैं ?
सूर्य में इतनी तेज़ रोशनी हैं ,
लेकिन आँखें सामने टिकती कहाँ हैं ?
मैं तो उसके कानों में कहना चाहता हूँ ,
लेकिन ये हिरणी सुनती कहाँ हैं ?
एक चोट ,एक भय हैं ,
जो पकते रहता हैं धीरे -धीरे ,
अंदर इतना ताप छुपा हैं ,
लेकिन ज्वाला उठती कहाँ हैं ?
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