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Showing posts from 2012

तुम आत्महत्या मत करना

तुम आत्महत्या मत करना , अपने पर विश्वास करना , जब परिवार तुम्हे छोड़ दे , और सगे सम्बन्धी कतराने लगे , कोई मित्र  तुम्हारा   साथ न दे , और सारे पड़ोसी तुमसे रूठ जाये , तब भी   तुम आत्महत्या मत करना , अपने पर विश्वास करना . जब   तुम्हारे आँखों के सामने अँधेरा हो , और कोई रास्ता दिखाई न दे , मंजिल कोई निश्चित न हो , और पांव भी थकने लगे , तब भी   तुम आत्महत्या मत करना , अपने पर विश्वास करना . जब तुम्हारा ग्रह-नक्षत्र  बिगड़ जाये , और भाग्य कुठाराघात करने लगे , समय   तुम्हारे अनुकूल न हो , और विपति तुम्हे एक साथ घेर ले , तब भी   तुम आत्महत्या मत करना , अपने पर विश्वास करना . तुम्हारे कमाई का साधन बंद हो जाये , और जमा पूंजी ख़त्म हो जाये , अचल सम्पति बिक जाये , और कही से कोई उधार न मिले , तब भी   तुम आत्महत्या मत करना , अपने पर विश्वास करना . तुम्हारे चरित्र पर हज़ार लांछन लग जाये , और समाज तुमको नकार दे , तुम्हारे नाम पर अखबार में मशाला बने , और तुम्हारे अपने तुम्हे धिक्कार दे , तब भी ...

अगर सिकंदर को पहले रोका होता

अगर  सिकंदर  को पहले रोका होता , तो आज हमारा खून साफ़ होता ? लंगोट नीलाम न होता , और मस्तक गुलाम न होता , हम हर बार देर से जागे , लेकिन तब तक हमारा मान-मर्दन हो चूका होता , हमारी धरती लूट चुकी होती , और जनता टूट  चुकी होती , अगर  सिकंदर  को पहले रोका होता , तो आज हमारा खून साफ़ होता ? हम हर बार लड़े हैं , हम हर बार जीते हैं , लेकिन तब जब कुछ नहीं बचा होता , यह कविता कुंठित नहीं , चेतावनी हैं , तुम आज फिर सो रहे हो , भोग -विलाश में खो रहे हो , एक अँगरेज़ फिर व्यापार करने आया हैं , कल मत कहना कोई तो चेताया होता , भविष्य के खतरे को समझाया होता हैं , अगर  सिकंदर  को पहले रोका होता , तो आज हमारा खून साफ़ होता ?    

सब्जी मंडी या की रंडी हो गयी हैं जनतंत्र ?

सब्जी मंडी या की रंडी हो गयी हैं जनतंत्र ? विदेशी लूटेरों की कुंजी हो गयी हैं जनतंत्र , या के  सत्ता के पहलवानों की पूंजी हो गयी हैं जनतंत्र ? बड़े -बड़े महलों के आगे झुंगी हो गयी हैं जनतंत्र , या बचपन के मदारी की डुगडुगी हो गयी हैं जनतंत्र ? सब्जी मंडी या की रंडी हो गयी हैं जनतंत्र ? ताकत और पैसे की संगी हो  गयी है जनतंत्र , या मियां हलीम की लुंगी हो गयी हैं जनतंत्र ? हिमालय के आगे छोटी हो गयी हैं जनतंत्र , या भारत के विद्वानों की पोथी हो गयी हैं जनतंत्र ? कुते की बोटी हो गयी हैं जनतंत्र , या पहलवानों की लंगोटी हो गयी हैं जनतंत्र ? सब्जी मंडी या की रंडी हो गयी हैं जनतंत्र ?

गाज़ियाबाद में लाशें बिछी हैं , आज वो कहाँ हैं ?

गाज़ियाबाद  में लाशें बिछी हैं , आज वो कहाँ हैं ? जिन्हें फ़िक्र थी मानवता , जो जीते थे जनतंत्र के लिए , सेकुलर होने की रोटी खाने वाले , आज वो कहाँ हैं ? गाज़ियाबाद  में लाशें बिछी हैं , आज वो कहाँ हैं ? जिन्हें अन्याय ,अत्याचार पचता नहीं , गुजरात पर जिनके कलम थकते नहीं , असम के कलंक पर मौन रहने वालों , आज आत्मा की आवाज़ कहाँ हैं ? गाज़ियाबाद  में लाशें बिछी हैं , आज वो कहाँ हैं ? नहरें मौत की कब्रगाह बनी हैं , और औरतें हवस की शिकार , आग के हवाले हुए हैं नागरिक और सिपाही , दहशतगर्दो  को समझाने वाले , सच का झंडा उठाने वाले , आज वो कहाँ हैं ? गाज़ियाबाद  में लाशें बिछी हैं , आज वो कहाँ हैं ?
द्रौपदी के चीरहरण पर तुम मौन हो, पूछते क्यों नहीं खुद से तुम कौन हो ? नदियाँ बही थी खून की इसी धरती पर , भूमि के लिए जान देने वाले या कुछ और हो . तुम अभागे अर्जुन या की कर्ण हो , अमेरिका कृष्ण या शकुनी सोनिया हो ,  पूछते क्यों नहीं खुद से तुम कौन हो ? लड़ रहा हैं एक वृद्ध सच के लिए , डंका के चोट पर तुम बोल दो , अब हम या ये तख़्त रहेगा , उठ रही हर गली के लहू की पुकार है ये , द्रौपदी के चीरहरण पर तुम मौन हो, पूछते क्यों नहीं खुद से तुम कौन हो ? Copyright@Ranjan Mishra
अँधेरा जब हद से ज्यादा हो , रोशनी कराई जाती हैं  धुप से बचने के लिए ,झोपडी बनाई जाती हैं , आज के नेता इतने व्यस्त हैं देश सेवा में , उनके संतानों की गिनती कोर्ट से कराई जाती हैं . Copyright@Ranjan Mishra
सुशासन की जय हो ......(bhojpuri kavita) बिलार के भागी सिकहर तुटत बा , अन्ना के माथे भाजपा मज़ा लूटत ता , परवल के जूस पिए के उ कहत रहे , इ भूरा बाल साफ़ कर के देखावत बा . छोट छोट बात के बतंगड़ बनावत बा , दुनिया के सब दोष बढजतियन पर आवत बा , उ अज्ञानी बनवलस,इ शराबी बनावत बा , इ लौलीपोप खिया के सब के भरमावत बा , हाय रे लोग ! तू लोग केतना अभागा होए , गढ़ाहा से निकल के कुआँ में गिरत बा . Copyright@Ranjan Mishra
Dr. Madhusudan जाति एक ब्रिटीश कुचेष्टा” अनुवाद: डॉ. मधुसूदन एक पुस्तक अकस्मात हाथ लगी।बस, ले लीजिए उसे आप यदि ले सकते हैं तो। नाम है, , “Castes of Mind: Colonialism and Making of British India” अर्थात “मानसिक जातियां : उपनिवेशवाद और ब्रिटीश राज का भारत में गठन” और लिखी गयी है, एक इतिहास और मानव विज्ञान के अमरिकन प्रोफेसर Nicholas D. Durks द्वारा। लेखक तर्क देकर पुष्टि भी करते हैं, कि वास्तविक वे अंग्रेज़ ही हैं, जिन्होंने जाति व्यवस्था के घृणात्मक रूपका आधुनिक आविष्कार किया, और कपटपूर्ण षड-यंत्र की चाल से जन-मानस में, उसे रूढ किया। आगे लेखक कहते हैं कि, जाति भेद, जिस अवस्था में आज अस्तित्व में है, उसका अंग्रेज़ो के आने से पहले की स्थिति से , कोई समरूपता (सादृश्यता ) नहीं है। कुछ विषय से हटकर यह भी कहा जा सकता है, कि, उन्होंने यही कपट अफ्रिकन जन-जातियों के लिए भी व्यवहार में लाया था। उद्देश्य था; वंशजन्य भेदों को बढा चढाकर प्रस्तुत करना, प्रजा जनों को उकसाना, विभाजित करना, आपस में भीडा देना, और उसी में व्यस्त रखना। इसी प्रकार, अपने राज की नीवँ पक्की करना। जिस अतिरेकी, और पराकोटि की मात...
जातिवाद और आरक्षण (विश्लेषण -2 ) जातिवाद की अवधारणा समाज के उत्थान के लिए ,समाज के विप्रो ने दिया था न की ब्राह्मणों ने . जातिवाद skill and innovation पर आधारित हैं . एक उदारण लेते हैं - एक लोहार जो लोहा का व्यापार करता है वो जब अपना होश संभालेगा तभी से लौह-व्यापार की बारीकी समझने लगेगा .जब वो जवान होगा तब-तक वो M.TECH and MBA दोनों से ज्यादा ज्ञान लौह-व्यापार में पा चूका होगा. .Learning with ear ning system .अब वो इस व्यापार को नया आयाम देगा . अब वो जिन्दगी जो भी सीखेगा वो नया होगा उस व्यापार में जो नयी पीडी के लिए विरासत होगा .इसका बेटा जब जवान होगा तब तक वो कई पीडियो का ज्ञान ले चूका होगा .ये जातिवाद एक महान परम्परा हैं जिससे अंग्रेजो ने नष्ट किया . अपनी जाति,धर्म ,मिटटी और देश को पूजने को पोगा-पंथी का नाम दिया ,अपने व्यापार को स्थापित करने के लिए क्योंकि वो skills में हमारे आगे कही नहीं टिकते थे और बिना जातिवाद को ख़त्म किये वो इस system को ख़त्म नहीं कर सकते थे . इसलिए उन्होंने जातिओ में उच्च -नीच का भेद पैदा किया . लोगो में भेद-भाव कि भावना भरी . Ranjan Mishra जातिवाद और आरक्षण (...

ब्राह्मणों ने भूखंडो को भारत बनाया हैं .

ज्ञान और दंड से बर्तन बनाया हैं , धर्म और शास्त्र से बस्ती बसाया हैं , नदी और गुलाब में सौंदर्य दिखाया हैं, ब्राह्मणों ने भूखंडो को भारत बनाया हैं . कही चाणक्य तो कही परशुराम हैं , कही आज़ाद तो कही सुभाष हैं , कही दधिची का बलिदान हैं , ब्राह्मणों ने एक -एक कण को सजाया हैं . Copyright@ Ranjan Mishra

पहाड़ को पिघलाउंगा मैं

ये पहाड़ जो खड़ा है गुनाहों का हैं , ये झाड़ उनके सिपलहारो का हैं , मोमबती जो जनता का हैं , अब इसे जलाऊंगा मैं , और पहाड़ को पिघलाउंगा मैं . ये समुन्द्र जो शांत हैं सब्र का हैं , ये नदी जो इसमें मिलती है कष्ट का हैं , ये हिम जो जनता का हैं , अब इसे गरमा उंगा मैं, और समुन्द्र में भूचाल लाऊंगा मैं .

बड़ी बेआबरू होकर कुचे से आज निकला

(अभिषेक मनु सिघवी पर एक कविता .पसंद आये तो अपने दाद जरुर दे ) उसके ठहाको के शोर में दबा तूफ़ान था , जिसकी आहट से ही उसका जनाज़ा निकला . रातभर करता रहा बखान अपनी जिन्दगी का , सुबह अख़बार में उसके खुदखुशी का खबर निकला . बैठ कर बादलो पर फिरता था आसमान में , बारिश आई तो बन के नाली का कीड़ा निकला . शब्दों के सियासत से शीर्ष पर पंहुचा , बड़ी बेआबरू होकर कुचे से आज निकला . घुमा करता था सच की लिवाज़ पहन कर , या खुदा ! आज वही झूठ का घरोंदा निकला . बैठा था जिस तख़्त पर वर्षो से वो , आज वही बन कर रेत का बुरादा निकला . रंजन मिश्र ...............रंजन मिश्र

तुम कमज़ोर नहीं थे ,तुम नामर्द थे .

तुम गवाह हो ! बताना अपने बच्चो को , कैसे लूटा गया तुम्हारा खेत , कैसे बेआबरू किया गया , तुम्हे,तुम्हारी मिटटी से , और तुम खड़े ताली बजाते रहे , कुछ बेवकूफ सर कलम कराते रहे , तुम कलमधारी पैसे कमाते रहे , खून पानी न हुआ हो तो बताना , तुम कमज़ोर नहीं थे ,तुम नामर्द थे . Copyright@ Ranjan Mishra

नाम हैं नेता

बेशर्म ,बेहया का नाम हैं नेता , सत्ता जिसका ईमान , पैसा जिसका भगवान् हैं , ऐसे आदमी का नाम है नेता . झूठ बोलना काम है , वादा करना पहचान , ऐसे निकम्मों का नाम है नेता . काला धन जिसकी सम्पति हैं ,, अंडरवर्ड जिसकी सेना , ऐसे गद्दारों का नाम है नेता . जो बेचता हैं अपनी बहन को, माँ को टांग देता नीलाम हैं , ऐसी संतान का नाम है नेता . जीप से लेकर तोप तक , कोयला से लेकर कफ़न तक , जो खाता हैं दलाली , ऐसे दलाल का नाम हैं नेता . जो खाता हैं चारा , और करता पगुराई अलकतरा का , ऐसे महामानवो का नाम हैं नेता . नस्लवाद और आतंकवाद , जातिवाद और धर्मवाद , बाँट देना जिसका संस्कार हैं , ऐसे शैतानो का नाम हैं नेता . घोटाला जिसका कर्म हैं , चरित्रहीनता जिसका धर्म , ऐसे कुलसित लोगो का नाम है नेता . खादी पहना करते हैं , तिरंगा बेचा करते हैं , गाँधी के पुरौधो का नाम हैं नेता . चोरी जिसका पेशा हैं , षड़यंत्र जिसकी योग्यता , ऐसे मक्कारों का नाम हैं नेता . अपनी ही बात तीन बार काटा करते हैं , हर चीज़ को तराजू में तौलते हैं , ऐसे दुकानदारों का नाम हैं नेता .

प्रिय तुम्हे जन्मदिन मुबारक

प्रिय तुम्हे जन्मदिन मुबारक , मिले तुम्हे हर गीत , मिले तुम्हे हर प्रीत , समुन्द्र की लहरों पर जीओ तुम , सागर की संगीत मुबारक , प्रिय तुम्हे जन्मदिन मुबारक . आनंद गाये तेरी गली में , प्रेम भरे तेरे आंगन में , दौलत की पुकार बने तू , शौहरत की हर शाम मुबरक , प्रिय तुम्हे जन्मदिन मुबारक .

क्या तुम मुझे भूल जाओगी ?

क्या तुम मुझे भूल जाओगी ? मैं वर्षो से नहीं मिला तुमसे , ना ही सालो से बात की , तो क्या तुम मुझे भूल जाओगी ? वो नदी किनारे की रात , तेरे हाथो में मेरा हाथ , वो स्पर्श तुम छोड़ जाओगी , तो क्या तुम मुझे भूल जाओगी ? ऐ हमसफ़र ! मैं तेरा साथ न दे पाया , तेरे आंचल को थाम न पाया , उन नजरो का जादू तोड़ जाओगी , तो क्या तुम मुझे भूल जाओगी ? तेरी गली नहीं गया , तेरी यादो को वही छोड़ आया , तो तुम रिश्ता तोड़ जाओगी , क्या तुम मुझे भूल जाओगी ? वो दरवाजा जो वापसी का था , मैं उस पर ताला जड़ आया , तो तुम मुझसे मुंह मोड़ लोगी , क्या तुम मुझे भूल जाओगी ?

आरक्षण ने हैं आग लगाई

आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. योग्यता भरता हैं पानी , अयोग्य मार रहे मलाई , जिसकी मोटी गर्दन हो, उसी को फंसी की हुक्म है आई आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. गोरा होने पर दंड मिलेगा , काले ने हैं नियम बनाई, आओ भाई ! जश्न मनाये , आज़ादी आई ,बजे शहनाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर सब्जी ,टके सेर खज़ा , वही व्यस्था लौट हैं देश जल रहा हाथ सेको मेरे भाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. सरकारी खर्चे पर बच्चे जनो , जनतंत्र ने धूम मचाई , बतीस रूपये में पेटभर खाओ , सो जाओ बिछा के चटाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई.

आरक्षण ने हैं आग लगाई

आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. योग्यता भरता हैं पानी , अयोग्य मार रहे मलाई , जिसकी मोटी गर्दन हो, उसी को फंसी की हुक्म है आई आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. गोरा होने पर दंड मिलेगा , काले ने हैं नियम बनाई, आओ भाई ! जश्न मनाये , आज़ादी आई ,बजे शहनाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर सब्जी ,टके सेर खज़ा , वही व्यस्था लौट हैं देश जल रहा हाथ सेको मेरे भाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. सरकारी खर्चे पर बच्चे जनो , जनतंत्र ने धूम मचाई , बतीस रूपये में पेटभर खाओ , सो जाओ बिछा के चटाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई.

आरक्षण ने हैं आग लगाई

आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. योग्यता भरता हैं पानी , अयोग्य मार रहे मलाई , जिसकी मोटी गर्दन हो, उसी को फंसी की हुक्म है आई आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. गोरा होने पर दंड मिलेगा , काले ने हैं नियम बनाई, आओ भाई ! जश्न मनाये , आज़ादी आई ,बजे शहनाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. अंधेर नगरी चौपट राजा , टके सेर सब्जी ,टके सेर खज़ा , वही व्यस्था लौट हैं देश जल रहा हाथ सेको मेरे भाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई. सरकारी खर्चे पर बच्चे जनो , जनतंत्र ने धूम मचाई , बतीस रूपये में पेटभर खाओ , सो जाओ बिछा के चटाई , आरक्षण ने हैं आग लगाई, घोल दिया मठ्ठा ,मिला दी खटाई.

औरत की आत्मकथा -१

मैं औरत हूँ , मैं सृजन करती हूँ , मैं पालन करती हूँ , देती हूँ पहली शिक्षा , उँगली पकड़ चलना सिखलाती हूँ , देव हो या दानव , उसको मैं संस्कार देती हूँ, एक माँ बन कर . सबसे पहले परिचय कराती हूँ , भावना से ,प्यार से , सह-अस्तित्य समझाती हूँ , रोज़-रोज़ लड़ के सुबह-शाम , रोज़ साथ-साथ बड़ते हुए, एक लड़की से परिचय कराती हूँ , तुम बलवान हो ,तुम रक्षक हो , यह मांग लेती हूँ रक्षाबंधन में , एक बहन बन कर . तुम्हारे कोमल ह्रदय पर राज़ करती हूँ , चाँद ,फूल ,नदी ,सावन , इन सबका तुम्हे अर्थ समझाती हूँ , भावुकता ,चाहत और मोह , मन की चंचलता की शास्त्र पढाती हूँ , घुटने पर खड़ा कर के प्रेमालाप कराती हूँ , एक प्रिय प्रेमिका बन कर , स्त्री की हास्य कला बताती हूँ , हंसी और ठिठोली करती हूँ , वो समस्या सुलझाती हूँ , जो तुम माँ से नहीं कह सकते , वो शास्त्र पढाती हूँ , जिसकी एक किशोर को जरूरत रहती हैं , एक भाभी बन कर . काम ,मोह ,जीवन , परिवार ,बच्चे ,जिम्मेदारी , क्रोध ,निराशा और उदासी . पुरुष की कमजोरी मैं भांप लेती हूँ , जलते रहो वासना में रात-भर , मैं वो देह-आग लगाती हूँ , दुनिया के सबसे बड़े रहस्य से, मैं पर्...

मानव होने का यहाँ संविधान नहीं हैं .

सभ्यता हैं ,संस्कार हैं , परम्परा और सत्कार हैं , अमन है ,आज़ाद हैं बस बोलने से पहले पूछने का प्रावधान हैं . यहाँ प्यार हैं ,भाईचारा हैं , सम्पति है ,सम्मान हैं , बस इन पर आप का अधिकार नहीं है , मानव होने का यहाँ संविधान नहीं हैं .

सच मत बोल ,it is not allowed

घोट देते हैं गला , दबा देते हैं सच , इसे कहते है आज स्वतंत्रता , इसे ही कहते है लोकतंत्र . जिसकी लाठी ,उसी की भैस , अपने-अपने दुनिया के सब लठैत , शोषण सहने को आज अनुशासन कहते है , भाई ! इसे ही लोकतंत्र का शासन कहते हैं . बाँध के गले में टाई, चमचमाते है जूता , बाप को गाली देने वाले , आज गड़ते है सभ्यता की परिभाषा .

अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच.

जब हवाएं सनसनाती हैं , रेत आसमान आसमान छेक लेते हैं , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. धूप जब आग बनता हैं , चेहरा गोरा से काला पड़ता हैं , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. जब बजती हैं घंटी , शांति भंग हो जाती हैं , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. पेड़ के नाम पर बबूल दीखते हैं , और जमीन की जगह रेत , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. जब प्यास लगती हैं , और पानी नहीं मिलता , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. आंसू आँखों में ही सूख जाते हैं , दर्द कुह्कते रहते हैं , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच. रात को जब नींद खुलती, बत्ती जलते हुए मिलती है , तब आभास होता हैं , अकेला हूँ , इन पहाड़ो के बीच.

तन्हाई और रात

तन्हाई और रात सुलगती सांसे , दहकते अंगार , मोम के टीले पर बसी , तन्हाई और ये रात. अंगूर ,भींगी-भींगी खुशबू , अल्हड ,मदमस्त ,बेकाबू , नशे के गोद में बैठी , तन्हाई और ये रात. आँखों की डोर , कबूतरों का शोर , चाहत की अंगड़ाई में सनी , तन्हाई और ये रात. . बसन्त ,ये बारिष, यौवन का तूफ़ान , जलती आग में घी बनी , तन्हाई और ये रात. चल ,यूँ ही चलते रहो , गीली जमीन पर बड़ते रहो , बेकाबू हुए आकाश में , तन्हाई और ये रात.

बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ?

बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ? नौकरी की तलास में भटक रहा नौजवान हैं , तिजोरी भर के बैठे हुए हुक्मरान है , न रोटी,न कपडा ,न मकान बस दूकान की दूकान हैं , तू बेरोजगार हैं या देश बेरोजगार हैं , बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ? आरक्षण अपराध हैं , देश शर्मसार हैं , जनतंत्र बलवान हैं या अपमान हैं , संख्या के दंभ में चूर सरकार हैं , बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ? योग्यनता की न फ़िक्र हैं , न मानव होने का सम्मान हैं , खुद के देश में फिरंगी -सा बर्ताव हैं , बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ? रोटी के तलाश में बिक रहा ईमान हैं , नीचो का मान हैं ,विदेसी सरकार हैं , टूट रहा घर ,टूट रहा समाज हैं , बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ? लूट या बिक गया मेरा वोट हैं , पेट या पीठ कौन -सा ये चोट हैं ? चौराहे पर खड़ा कौन -सी अब राह हैं , बोल मेरे देवता कहाँ मेरा अधिकार हैं ?