डूब रहा हूँ

नदियाँ बहती
बेख़ौफ़ ,अनायास
है उनका एक लक्ष्य
समर्पण .
रचती है एक और भी दुनिया
मछली ,सांप ,सोंस
और
अनंत जलचर
नहीं मतलब अपनी रचनाओ से
बेकाम ,बेअर्थ,निरुदेश्य
परन्तु
ये जलचर ?
हो गए निर्भर नदियों पर
शायद ऐसे ही निर्भर है भूचर
सूरज पर
परन्तु सूरज को क्या ?
वैसे ही
हर व्यक्ति
हर समाज
हर देश
और मैं भी
निर्भर होते जा रहा हूँ
भावनाशुन्य आलम्ब पर
और लुप्त हो रहा है
मेरा वजूद,
अहंकार ,
आत्मा
देह
और
मेरा अर्थ
और डूब रहा हूँ सागर में
निष्प्राण पत्थर की तरह.

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