कस्तूरी मृग
हम जी रहे हैं वैसे ,
जैसे कोई कस्तूरी मृग ,
लिए हाथ में धनुष -बाण,
घूम रहे है जंगल-जंगल
लगाते निशाना हर शिकार पर ,
पर चूक जाता निशाना हरेक
फिर भी शिकार करते हम रोज़ .
आंख उठता हूँ
तो लुल्हे- लंगड़ो का हुजूम दीखता है ,
बगल में एक मेला है
जहाँ सपना बिकता है दौड़ने का ,
जहाँ से हर साल हजारों लोग ,
निराश लौट जाते हैं ,
फिर भी भीड़ कम नहीं होती ,
क्योंकि
वह सपना बिकता है .
हम जी रहे है वैसे
जैसे कोई महत्वपूर्ण मशीन ,
सुबह से शाम ,
शाम से रात ,
लोगो का हुजूम ,
कंक्रीट सागर ,
और चलते हुए ये पैर
रात-दिन ,
न थकान
न पड़ाव
बस एक आशा ,
एक ख़ुशी की जो कही नहीं है .
हम जी रहे है वैसे जैसे
टमटम का घोडा ,
खुले मैदानों के बदले
सरपट पीच रोड पर सावरी खिचता हुआ ,
हम भी उसी व्यवस्था के हिस्सा है ,
क्यों कि
कस्तूरी -मृग आज भी जिन्दा है .
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