मुझे पसन्द नहीं
ऐ जिन्दगी ! तुम जाओ
अब नहीं जरुरत तुम्हारी,
अब हम नयी जिंदगी बनायेगे,
जिसमे मै मालिक होउगा,
और नौकर भी मै.
मै मुर्ख था क्योंकि
मै तुमसे प्रेम करने लागा था ,
जब कि तुम एक धूर्त संगनी थी,
जो मेरे भावनाओ,
मेरे धर्म , मेरे कर्मो
से खिलवाड़ करती रही,
जो मेरे विश्वास,आदर्श
और
मेरे लक्ष्य को भटकाती रही.
जो
मेरे संग रह कर ,
मेरा अन्न खाकर,
मेरे घर में रह कर,
मेरे तन का हिस्सा बनकर,
मुझे ही धोखा देती रही.
जो
मेरे लाख प्रयास के बावजूद ,
मुझे निरास,हतास
और भयातुर करती रही.
जो
मेरे इमानदारी, मानवता को
हथियार बना कर ,
मेरे ऊपर प्रहार करती रही.
जो
मेरे तन,मन,धन,
को बर्बाद करती रही,
और
उलटे अपने को मसीहा कहती रही.
जो
मुझको कुंठित करती रही,
अपने को संघर्ष का नाम देकर,
मुझको व्यथित करती रही.
ऐ जिंदगी ! तुम जाओ
नहीं जरुरत तुम्हारी,
क्योंकि
तुम्हारे कुंडली और हस्तरेखाए ,
पाखंडी नियम,
पल-पल बदलना ,
उजालो से भागकर ,
अंधेरो में घूमना .
मुझे पसंद नहीं,
क्योंकि
तुम्हारी रहस्मय छवि ,
घोर अनिश्चिंतता ,
कठोर ह्रदय ,कोमल तन,
पल-पल गिरना घयल हो कर ,
फिर थेथर बनना ,
मुझे पसंद नहीं,
क्योंकि
यमराज से तुम्हारी मित्रता ,
कर्ज में मिली सांसे ,
और एक- एक क्षण के लिए मोहताज तुम,
मुझे पसंद नहीं.
क्योंकि
तुम्हारी घिसी-पीती राह ,
एक ही बार -बार छह,
परतंत्रता में जकड़ी तुम्हारी रूह,
मुझे पसन्द नहीं.
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